राष्ट्रीय आन्दोलन
329. राष्ट्रीय
आन्दोलन - ‘बहु वर्गीय’
आन्दोलन
प्रवेश :
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का उदय हुआ। उसके बाद के शुरुआती वर्षों में ब्रिटिश अधिकारी यह मानते थे
कि ‘कांग्रेस एक अल्पसंख्यक वर्ग की प्रतिनिधि से अधिक कुछ नहीं है’। कैम्ब्रिज के विद्वान यह कहा करते
थे कि ‘भारत जैसी कोई चीज़ न तो है, न कभी थी’। यह सही है कि 1880 के दशक में
कांग्रेस समाज के अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त उच्च वर्गों और व्यावसायिक समूहों तक ही
सीमित थी। उसके सदस्य राजभक्ति में विश्वास रखते थे। किसानों की न तो सुनी जाती थी, न कोई उनके बारे
में सोचता था। लेकिन इसे सम्पूर्ण भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का चरित्र मान कर देखा
जाना बहुत बड़ी भूल होगी। बहुत से इतिहासकारों द्वारा अपने-अपने चश्मे से इतिहास
लेखन के कारण ऐसी धारणा बनाई गई जो भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के सही चरित्र को
सामने नहीं लाती। हाल के दिनों के अध्ययन से ‘नीचे से इतिहास’ को देखने की दृष्टि पर जोर दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप औपनिवेशिक
शोषण और उसके विरुद्ध किए जाने वाले संघर्ष का अधिक स्पष्ट रूप सामने आया है। नए
अध्ययन यह साबित करते हैं कि नवजागरण की गतिविधियों के कारण आधुनिक राष्ट्रवाद का
जन्म हुआ और देश में साम्राज्यवाद का विरोध अभिजातवादी के साथ-साथ लोकवादी (Populist), दोनों ही स्तरों
पर हुआ। ।
राजवाड़े :
हालाकि ब्रिटिशों द्वारा रजवाड़ों का
इस्तेमाल राष्ट्रवाद के विरुद्ध किया गया, लेकिन बाद के दिनों की प्रगति ने यह साबित
किया कि वे भी राष्ट्रवाद की मुख्य धारा से जुड़ना चाहते थे। रजवाड़ों के मुद्दों को
लेकर कांग्रेस हमेशा बचती आ रही थी। कांग्रेस रजवाड़ों के अलोकप्रिय शासन के खिलाफ
हो रहे जन-आन्दोलन को खुला समर्थन देने से बचती रही। मिन्टो के समय से अंग्रेजी
सरकार भारतीय रजवाड़ों से अपने संबंध मज़बूत करती आ रही थी। लेकिन 1920 के दशक में
असहयोग आन्दोलन जब अपनी चरमोत्कर्ष पर पहुंचा तो अँग्रेज़ यह महसूस करने लगे कि
कांग्रेस अधिक सबल और सक्षम हो गयी है और इसकी चुनौती के समक्ष देशी राजाओं से
दोस्ती बढाने की उतनी ज़रुरत नहीं है। अंग्रेजी वायसराय नरेशों से दूरी बनाने लगे।
नरेशों ने भी सरकार से यह मांग रखी कि उनकी सर्वोच्चता के दावों में कमी कर दी जाए।
यह बात तब और भी स्पष्ट हो गई जब नेहरू रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर दिया गया था कि
सर्वोच्चता केंद्र को हस्तांतरित कर दी जाएगी। पीपुल्स कांफ्रेंस में भी इस बात की
मांग की गई थी कि उत्तरदायी सरकार का नियम रजवाड़ों पर भी लागू किया जाए।
मुसलमानों,
आदिवासियों और दलितों :
अंग्रेजी हुकूमत द्वारा मुसलमानों
को हिन्दू-आधिपत्य का भय दिखाया गया फिर भी मुसलमानों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा
राष्ट्रवाद की मुख्य धारा से जुड़ा रहा। उपनिवेशवादियों ने फूट डालने के हर पैंतरे
अपनाए। सुमित सरकार ने बताया है कि “आंबेडकर के माध्यम से अभिव्यक्त
होने वाले ‘अछूतों’ के जायज़ क्षोभ को राष्ट्रवादियों की स्वाधीनता प्राप्ति की दिशा में
शीघ्र अग्रसर होने वाली मांगों के विरुद्ध प्रयुक्त किया गया।” इसी तरह
नागपुर में आदिवासी अलगाववाद को बढ़ावा दिया गया। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ने ‘फूट डालो और राज करो’ के औपनिवेशिक प्रयासों को विफल करने का भरपूर प्रयास किया। हालाकि बाबा साहेब आम्बेडकर के
आंदोलन को कांग्रेस ने आत्मसात तो नहीं किया, लेकिन गांधीजी ‘हरिजनों’ के बीच काम करते
रहे। कल्याणकारी गतिविधियों के द्वारा कांग्रेस ने आदिवासियों का समर्थन प्राप्त किया।
वन सत्याग्रह को सविनय अवज्ञा आन्दोलन का एक प्रमुख हिस्सा बनाया गया। जहां तक
मुसलमानों के समर्थन का सवाल है तो, हम पाते हैं कि 1937 के चुनावों में 482
मुसलिम सीटों में से जिन्ना की लीग केवल 109 सीटें ही जीत सकी। मुस्लिम बहुमत वाले
पंजाब और बंगाल में लीग की हार कांग्रेस से नहीं बल्कि मुस्लिम प्रधान प्रादेशिक
दलों कृषक प्रजा पार्टी और यूनियनिस्ट पार्टी से हुई थी।
किसानों,
काश्तकारों और श्रमिकों :
कांग्रेस ने राजस्व, सिंचाई शुल्क, लगान और क़र्ज़ के बोझ में कमी, बेदखल की गयी भूमि की
वापसी और ज़मींदारी उन्मूलन के मुद्दों को अपने संघर्ष में शामिल कर भूमिधर किसानों
और छोटी जोत वाले काश्तकारों को अपने साथ लिया। कृषि सुधारों के लिए किए जाने वाले
कृषक आन्दोलनों ने राष्ट्रीय आन्दोलन को मज़बूती प्रदान की। अनेक कृषक नेताओं ने
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के आरंभ से पहले तक कांग्रेस के लिए एक दृढ़ किसान आधार बना
दिया था। श्रमिकों ने जगह-जगह हड़ताल किए। श्रमिकों को राष्ट्रवादी समर्थन मिला।
मज़दूरों ने भी पूर्ण स्वराज की मांग का प्रस्ताव स्वीकार किया। प्रमुख राष्ट्रवादी
नेता सुभाष चन्द्र बोस ने श्रमिक आन्दोलन में रूचि दिखाई। अखिल भारतीय कांग्रेस
कमेटी ने एक श्रमिक अनुसंधान विभाग की स्थापना की।
व्यापारिक वर्ग :
श्रमिकों द्वारा बार-बार किए जा रहे
हड़ताल और संघर्ष ने भारतीय व्यापारिक वर्ग को सरकारी समर्थन को प्राप्त करने के
लिए विवश कर दिया था। फिर भी वे ब्रिटिश नीतियों को लेकर असंतुष्ट थे। बहिष्कार और
स्वदेशी के कार्यक्रमों ने स्थानीय उद्योगों और उद्योगपतियों को अपना व्यापार
बढाने में मदद पहुंचाई। 1930 के दशक में भारतीय उद्योगपतियों द्वारा चलाए जा रहे चीनी, सीमेंट, कागज़ और
इस्पात उद्योगों में तेज़ी से बढोत्तरी हुई और उसे ब्रिटिश संरक्षण की ज़रुरत नहीं
रही। उद्योगपतियों ने राष्ट्रीय आन्दोलन से हाथ मिलाया और हर तरह से इसकी मदद की।
छात्र, युवक और
स्त्रियाँ :
असहयोग आन्दोलन के दौरान और उसके
बाद भी छात्र और युवक राष्ट्रीय आन्दोलन में बड़ी संख्या में भाग लेते रहे। युवाओं
ने पूर्ण स्वाधीनता और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन की मांग को
प्रमुखता दी। कांग्रेस ने हिन्दुस्तानी सेवा दल के माध्यम से युवकों को संगठित
किया। सुभाष चन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू युवा नेता के रूप में काफी प्रसिद्ध हुए।
इन दोनों ने ‘इंडिपेंडेंस फॉर इंडिया लीग’ की स्थापना की। भगत सिंह, यतीन्द्रनाथ, अजय घोष और फनीन्द्रनाथ घोष ने ‘हिन्दुस्तान
समाजवादी प्रजातंत्र संघ’ की स्थापना की। युवाओं ने पूर्ण स्वाधीनता और
सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों में आमूल परिवर्तन की मांग को प्रमुखता दी। इन युवा
स्वतन्त्रता सेनानियों ने क्रान्तिकारी गतिविधियों को राष्ट्रीय आन्दोलन में
समावेश किया। वे समाज का पूर्ण परिवर्तन करना चाहते थे। असहयोग और सविनय अवज्ञा के
राष्ट्रीय आन्दोलनों में स्त्रियों का सम्मिलित होना भारतीय स्त्रियों की मुक्ति
की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम था। भारतीय घरेलू महिलाएं राष्ट्रीय स्वतंत्रता
के लिए संघर्ष कर रही थीं।
उपसंहार :
गांधीजी के राष्ट्रीय आन्दोलन से
जुड़ने और उसको नेतृत्व प्रदान करने के बाद उसकी अभिजात और बुद्धिजीवी वर्गीय सीमा
टूटी। गांधीजी ने कांग्रेस के विधान में परिवर्तन कर लोगों का विश्वास जीता और
चौअनिया सदस्यता के द्वारा आम लोगों तक इसकी पहुंच बनाई। देखते-ही-देखते कांग्रेस
आम जनता का सबसे बड़ा संगठन बन गई। इसके सदस्यों में किसान, काश्तकारों और मज़दूरों
का समावेश हुआ। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का न सिर्फ भौगोलिक बल्कि सामाजिक
विस्तार भी हुआ। अब न सिर्फ शहरी बुद्धिजीवी बल्कि छोटे शहरों के निम्न-मध्य
वर्गों, ग्रामीण किसान वर्ग
के बड़े भागों और छोटे-बड़े शहरों के प्रभावशाली बुर्जुवा समूहों तक इसका फैलाव हुआ।
गांधीजी ने 1920 के दशक में जब एक अखिल-भारतीय आन्दोलन की बुनियाद रखी तो उसके
मुद्दे भू-राजस्व, नमक कर, आवकारी और
वनों संबंधी अधिकार भी समाहित किए हुए थे। 1930 के दशक में ट्रेड यूनियनों, किसान
सभाओं, छात्र संगठनों, कांग्रेसी समाजवादियों और
कम्युनिस्टों के माध्यम से भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को विभिन्न वर्गों का समर्थन
मिला। स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन में देश के लगभग सभी वर्गों ने भाग लिया। खादी, चरखा, कताई जैसे रचनात्मक ग्रामोत्थान कार्यक्रम से
निम्न वर्गों का इससे जुडाव हुआ। क्रांतिकारी आन्दोलनकारियों के रूप में युवा वर्ग
आगे आए। हड़तालों के द्वारा मज़दूर वर्ग इसका हिस्सा बने। स्त्रियों सहित जन-सामान्य
का सक्रिय राजनीति में प्रवेश हुआ। जब गांधीजी के चमत्कारिक नेतृत्व में राष्ट्रीय
आन्दोलन आगे बढ़ा, तो जनता की भागीदारी बहुत प्रभावपूर्ण हुई। शिक्षित युवकों, कामगारों, किसानों,
उद्योगपतियों, स्त्रियों, नौकरीपेशा, बेरोज़गार, सेना, वकीलों, बुद्धिजीवियों, छोटे और मझोले ज़मींदार, काश्तकार, खेतिहर मज़दूर, शहरी और ग्रामीण आम जनता का साम्राज्यवादी
विरोधी आन्दोलन से जुडाव इस बात को साबित करता है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन ‘बहु वर्गीय’ आन्दोलन था, जिसमें सभी वर्गों
तथा स्तरों के साम्राज्यवादी हितों का प्रतिनिधित्व था।
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मनोज कुमार
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