मंगलवार, 18 नवंबर 2025

379. 1857 का महाविद्रोह- स्वरूप

राष्ट्रीय आन्दोलन

379. 1857 का महाविद्रोह- स्वरूप



1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह के रूप में शुरू हुआ, जो जल्द ही किसानों, जमींदारों और आम जनता को शामिल करते हुए एक बड़ा जन विद्रोह बन गया। इसका स्वरूप कई तरह से था, जिसमें पहला स्वतंत्रता संग्राम होने की भावना, राष्ट्रीयता का उदय, और सामाजिक व धार्मिक असंतोष शामिल थे। 

1857 के महाविद्रोह को सभी वर्गों का समर्थन नहीं था। यह विद्रोह मुख्यतः सैनिकों द्वारा शुरू किया गया था। इसके बाद ही अन्य लोग इसमें शामिल हुए। यह विद्रोह किसी वर्ग विशेष का नहीं था। इसमें विभिन्न वर्गों के लोगों ने भाग लिया, लेकिन किसी भी सम्पूर्ण वर्ग का समर्थन इसे नहीं मिल सका। अनेक वर्गों ने या तो तटस्थ भूमिका निभाई या अंग्रेजों का ही पक्ष लिया। इसलिए यह पूरे भारत में सामान रूप से फैल नहीं सका। हालाकि इस विद्रोह में सेना ने मुख्य भूमिका निभाई, लेकिन सिख सैनिक इसमें शामिल नहीं हुए। विद्रोह के दमन में भी भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों की मदद की। इस विद्रोह में सभी देशी शासकों ने भी भाग नहीं लिया। इसके उलट ग्वालियर, इंदौर, हैदराबाद, राजपुताना के अनेक राज्यों, भोपाल, पटियाला, नाभा, जिन्द, कश्मीर, नेपाल के शासकों और अन्य बड़े ताल्लुकेदारों और ज़मींदारों ने विद्रोह को दबाने में अंग्रेजों की सहायता की।

इस विद्रोह में अंग्रेजी नीतियों से प्रभावित वर्ग और व्यक्तियों का भाग लेना इसकी एक प्रमुख विशेषता थी। विद्रोह में सिर्फ उन्हीं शासकों और ज़मींदारों ने सक्रिय रूप से भाग लिया जिन्हें अंग्रेजी नीतियों से व्यक्तिगत तौर पर हानि पहुंची थी। उनकी ज़मींदारी छीन ली गई थी। राज्य का अधिग्रहण कर लिया गया था। पेंशन बंद कर दिया गया था। एक अनुमान के अनुसार एक प्रतिशत से अधिक ज़मींदारों और राजाओं ने इसमें भाग नहीं लिया था।

इस विद्रोह में हिन्दू-मुसलमानों का सामान रूप से भाग लेना बहुत ही गौर करने वाली बात थी। न तो यह पूर्णतया हिन्दुओं का विद्रोह था और न ही मुसलमानों का। दोनों धर्मों के लोगों और नेताओं ने इसमें भाग लिया। जहां एक ओर मुसलमानों ने हिन्दुओं की भावना का सम्मान देते हुए गो-हत्या बंद कर दी वहीँ दूसरी ओर हिन्दुओं ने बहादुरशाह को अपना बादशाह मान लिया। विद्रोह के दमन में भी हिन्दू और मुसलमानों दोनों ने अंग्रेजों का सहयोग किया।

इस विद्रोह को समाज के धनी और मध्यम वर्ग का सहयोग नहीं मिला। समाज का धनीवर्ग, महाजन, बनिए, सौदागर, बंगाल का ज़मींदार वर्ग, आधुनिक शिक्षाप्राप्त मध्यम वर्ग में विद्रोह के प्रति सहानुभूति नहीं थी। वे अंग्रेजों के ही हिमायती थे।

विद्रोह को किसानों और दस्तकारों का सहयोग मिला। किसानों का एक बड़ा वर्ग भी विद्रोह से अलग ही रहा। लेकिन अनेक स्थानों, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में किसानों और दस्तकारों ने बड़ी संख्या में विद्रोह में भाग लिया। इन लोगों ने अंग्रेजों से जम कर लोहा लिया और सरकारी प्रशासन को ठप्प कर दिया। इसने विद्रोह को एक ठोस आधार प्रदान किया।

यह विद्रोह उत्तर और मध्य भारत में व्यापक था। उत्तर और मध्य भारत के अलावे भारत के अन्य भागों, मद्रास, बंबई, बंगाल और पश्चिम पंजाब में विद्रोह का कोई खास असर नहीं था।

विद्रोह को व्यापक जनाधार का अभाव था। समाज के विभिन्न वर्गों ने व्यक्तिगत हितों से उत्प्रेरित होकर ही इसमें भाग लिया था। इसे किसी वर्ग विशेष का या जन-साधारण का विद्रोह कहना उचित नहीं होगा।

1857 का महाविद्रोह- स्वरूप

11 मई, 1857 को मेरठ में विद्रोह शुरू हुआ। मेरठ की विद्रोही सेना ने जेल तोड़कर अपने साथियों को रिहा किया। विद्रोहियों ने अंग्रेजों की ह्त्या की और मेरठ से दिल्ली आए। उन्होंने बहादुरशाह को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। अब विद्रोह को मुग़ल बादशाह के नाम से चलाया जा सकता था। इस प्रकार सिपाहियों ने ग़दर को एक क्रांतिकारी युद्ध में बदल दिया। ज़फर भारतीय एकता के प्रतीक बन गए थे। विद्रोहियों ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। दिल्ली की जनता ने भी विद्रोहियों का साथ दिया। दिल्ली में एक सैनिक और असैनिक प्रबन्धकर्ता समिति बनी। इसका प्रधान जनरल बख्त खान थे। इसमें सैनिकों के अलावा आम जनता के प्रतिनिधियों को भी सम्मिलित किया गया। दिल्ली पर कब्ज़ा करने के एक महीने के भीतर, विद्रोह देश के विभिन्न हिस्सों में फैल गया: कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, बरेली, जगदीशपुर और झाँसी। लगभग पूरे उत्तरी और मध्य भारत में विद्रोह की ज्वाला धधक उठी। कानपुर में विद्रोहियों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब के सामने विद्रोह का नेतृत्व संभालने का प्रस्ताव रखा, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। झाँसी की रानी को आम जनता के दबाव में विद्रोह का नेतृत्व संभालना पड़ा। बिहार में आरा के स्थानीय जमींदार कुंवर सिंह ने नेतृत्व प्रदान किया। लखनऊ में लोगों ने नवाब वाजिद अलीशाह के युवा बेटे बिरजिस कादिर को अपना नेता घोषित कर दिया। विद्रोहियों ने अंग्रेजों से खुला युद्ध किया। अंग्रेजों की हत्याएं की। सकारी खजानों और शस्त्रागारों को लूटा। सरकारी दफ्तरों, कचहरियों, लगान कार्यालयों, थानों पर आक्रमण कर उन्हें नष्ट कर दिया। अनेक स्थानों से कुछ समय के लिए ‘कंपनी राज समाप्त कर दिया। लेकिन दिसंबर, 1858 तक विद्रोहियों पर सरकार ने काबू पा लिया।

1857 का महाविद्रोह का वास्तविक स्वरुप एक विवाद का विषय रहा है। मार्श, मैन, सीले, जॉन लारेंस, जैसे साम्राज्यवादी विचारधारा से प्रभावित इतिहासकारों ने इस विद्रोह का महत्व कम करने के लिए इसे ‘ग़दर या ‘सैनिक विद्रोह का नाम दिया। उनका मानना था कि कारतूस वाली घटना से क्षुब्ध होकर कुछ सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया था। उनका तर्क है कि इस विद्रोह में जन-साधारण ने भाग नहीं लिया। गाँव इस विद्रोह की तपिश से दूर थे। जो जमींदार, शासक इस विद्रोह में शामिल थे वे केवल अपने स्वार्थ के कारण अंगेजों से बदला लेना चाहते थे। इस विद्रोह का प्रारंभ सैनिक छावनी से हुआ। केवल उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों तक ही इस विद्रोह का प्रभाव था। पंजाब में इसका कोई प्रभाव नहीं था। इस विद्रोह को मुट्ठीभर सैनिकों ने दबा दिया। सिखों और गोरखों ने अंग्रेजों का विद्रोह के दमन में साथ दिया। इसलिए इस विद्रोह में राष्ट्रीय संग्राम का रूप नहीं देखा जा सकता।

कुछ विद्वानों द्वारा इस विद्रोह को ‘ईश्वर द्वारा भेजी गई विपत्ति, ‘हिन्दू मुस्लिम षड्यंत्र, ‘धर्मान्धों का ईसाइयों के विरुद्ध विद्रोह, ‘बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध माना है। लेकिन यह व्याख्या विद्रोह के स्वरुप को पूरी तरह नहीं दर्शाता। ऐसा लगता है की इन विद्वानों ने सही तथ्यों की अनदेखी की है। इसके विपरीत अनेक तत्कालीन अँग्रेज़ इतिहासकारों और राजनीतिज्ञों ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह माना है। उनके अनुसार इसका उद्देश्य भारत से अंग्रेजी शासन को समाप्त करना था। अनेक भारतीय विद्वानों ने इसे ‘राष्ट्रीय स्वतंत्रता का युद्ध और ‘सामान्य जनता का विद्रोह’ माना है।

सिपाही अंग्रेजी शासन के दमन के प्रति सचेत थे। सेना अपने आप में ही अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह का पर्याय हो गई थी। सैनिक किसी न किसी तरह आम जनता से जुड़े थे। ग्रामीण जनता के बीच अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ जो विद्रोही काम कर रहे थे उन्होंने विद्रोही सिपाहियों का समर्थन किया। उत्तर और मध्य भारत में हर जगह पर सिपाहियों का यह ग़दर जनता के विद्रोह में बदल गया। सिपाहियों की कार्रवाई ने ग्रामीण आबादी को राज्य और प्रशासन के नियंत्रण के भय से मुक्त कर दिया। उनकी संचित शिकायतें तुरंत सामने आईं और वे सामूहिक रूप से उठ खड़े हुए और ब्रिटिश शासन के प्रति अपना विरोध प्रकट किया। इस विद्रोह में सैनिक ही नहीं लडे, बल्कि जनसाधारण भी लड़ा था। इसने व्यापक और संगठित रूप से पहली बार अंग्रेजी सत्ता को चुनौती दी गई। यह मध्ययुगीन विशिष्ट, किन्तु अशक्त वर्गों की अपनी खोई हुई सत्ता को प्राप्त करने का अंतिम प्रयास था। इसका आरंभ एक सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ, लेकिन यह सेना तक सीमित नहीं रहकर सामान्य जनता तक पहुँच गया। यह सैनिक, सामंत, कृषक, दस्तकारों का एक संयुक्त संगठन था, जिसके शिकार ब्रिटिश साम्राज्यवादी और नया ज़मींदार और सम्पत्तिवाला वर्ग था। अंग्रेजों के साथ ही नए ज़मींदारों और साहूकारों को भी विद्रोहियों का कोपभाजन बनना पडा। विद्रोही गतिविधियाँ तीव्र ब्रिटिश-विरोधी भावनाओं से प्रभावित थीं और प्रशासन को हमेशा के लिए उखाड़ फेंका गया। अपने ही खेमे से किसी नेता के अभाव में, विद्रोहियों ने भारतीय समाज के पारंपरिक नेताओं - क्षेत्रीय अभिजात वर्ग और सामंती सरदारों की ओर रुख किया, जिन्होंने अंग्रेजों के हाथों कष्ट झेले थे।

क्षेत्र-विशेष में विद्रोह का स्वरुप भिन्न था। जैसे पंजाब और मध्य भारत में यह विद्रोह मुख्यतः सैनिक विद्रोह ही था जिसमें अन्य व्यक्ति भी शामिल हुए। मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और बिहार में सैनिक विद्रोह के बाद सामान्य जनता ने भी पुराने ज़मींदारों के साथ मिलकर विद्रोह कर दिया। राजस्थान और महाराष्ट्र में जनता विद्रोहियों से सहानुभूति रखते हुए भी इसमें सम्मिलित नहीं हुई। झाँसी और दिल्ली के नागरिक सैनिकों के साथ मिलकर अपने-अपने नगर की रक्षा कर रहे थे। उन्होंने अंग्रेजी सेना को पीछे धकेल दिया। दिल्ली और मेरठ के बीच गांवों के लोग भी सैनिकों के साथ आ मिले थे। किसानों ने उनका साथ दिया। इसलिए गांवों का मूल्यांकन कम करके नहीं आंका जाना चाहिए।

हालाँकि विद्रोहियों को जनता की सहानुभूति मिली, लेकिन पूरा देश उनके साथ नहीं था। व्यापारी, बुद्धिजीवी और भारतीय शासक न केवल अलग-थलग रहे, बल्कि सक्रिय रूप से अंग्रेजों का समर्थन भी किया। कई स्थानों पर सैनिकों की टुकड़ी अंगेजों के प्रति स्वामीभक्ति बनी रही। इसलिए इस विद्रोह को पूरी तरह से सैनिक विद्रोह कहना ठीक नहीं है। अंग्रेजी सेना ने जब विद्रोह को कुचला तो उन्होंने केवल विद्रोही सैनिकों को ही दंडित नहीं किया, बल्कि स्त्री, पुरुष, और बच्चों को भी रौंदते हुए वे आगे बढ़ रहे थे। एक अनुमान के अनुसार अंग्रेजों से लड़ते हुए अवध में डेढ़ लाख और बिहार में एक लाख नागरिक शहीद हुए। इससे स्पष्ट होता है कि जनसाधारण ने भी विद्रोह में भाग लिया था। विद्रोह ने लोकप्रिय विद्रोह का स्वरुप ले लिया था। इस विद्रोह में बड़े पैमाने पर विभिन्न वर्गों के लीग शामिल हुए थे। किसानों और पुराने ज़मींदारों ने अपनी भावनाओं का खुलकर प्रदर्शन किया। कई स्थानीय नेतृत्व कर रहे लोगों के पीछे असंख्य लोग सिपाहियों की तरह लड़ने-मिटने के लिए तैयार खड़े थे। जिन स्थानों पर विद्रोह नहीं भड़का वहाँ के लोगों की सहानुभूति भी विद्रोहियों के साथ थी। जहां सिपाही अंग्रेजी सरकार के प्रति वफादार थे, उन स्थानों पर सिपाहियों का सामाजिक बहिष्कार किया गया। हड़प नीति के बावजूद, भारतीय शासकों ने, जिन्हें उम्मीद थी कि अंग्रेजों के साथ उनका भविष्य सुरक्षित रहेगा, उदारतापूर्वक उन्हें सैनिक और सामग्री प्रदान की। वास्तव में, अगर सिपाहियों को उनका समर्थन मिलता, तो वे बेहतर लड़ाई लड़ सकते थे।

इस तरह हम देखते हैं कि 1857 का महाविद्रोह वस्तुतः एक मिश्रित स्वरुप था। इसलिए निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि 1857 का ग़दर, सिपाहियों के ग़दर से कहीं अधिक तथा राष्ट्रीय विद्रोह से कहीं कम था। विद्रोह सिर्फ़ सिपाहियों का विद्रोह नहीं था, क्योंकि इसमें किसान, कारीगर और कुछ शासक भी शामिल थे। हालांकि, यह पूर्ण राष्ट्रीय विद्रोह भी नहीं था, क्योंकि इसमें पूरे देश ने भाग नहीं लिया और कुछ बड़े शासक और वर्ग इसमें शामिल नहीं हुए थे। इसमें अखिल भारतीय चरित्र का अभाव था, विद्रोह पूरे देश में नहीं फैला। दक्षिण भारत में यह बहुत कम प्रभावी था, और सभी क्षेत्रों के लोग एक साथ नहीं आए थे। विद्रोह के लिए कोई एक एकीकृत योजना या केंद्रीय नेतृत्व नहीं था, जिससे यह एक सुनियोजित राष्ट्रीय आंदोलन के बजाय स्थानीय विरोधों का एक समूह बन गया। 

विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की सारी कोशिशें छिटपुट हुईं और स्थानीय स्तर तक ही सीमित रही। ये कोशिशें एक-दूसरे से पूरी तरह अलग-थलग भी रहीं। चूंकि इन विद्रोहों के पीछे महज स्थानीय कारण और मुद्दे ही थे, इसलिए ये स्थानीय स्तर तक ही सिमटे रहे। यों तो इनमें से कई विद्रोहों का चरित्र एक जैसा था, लेकिन ऐसा इसलिए नहीं था कि ये कहीं से भी राष्ट्रीय प्रयासों को प्रतिनिधित्व करते थे, बल्कि इसका कारण यह था कि इनमें से कई विद्रोहों का जन्म एक जैसी पृष्ठभूमि और परिस्थितियों के कारण हुआ था।

विभिन्न उद्देश्यों से प्रेरित होकर सैनिकों द्वारा आरम्भ किए गए विद्रोह से उत्पन्न स्थिति का लाभ उठाने के लिए समाज के विभिन्न वर्गों के लोग इसमें शामिल हुए। इन सभी ने अंग्रेजी अत्याचारों से मुक्त होने का प्रयास किया। हालाकि भारत को बचाने का यह हताशा भरा प्रयास पुराने तरीके से और परंपरागत नेतृत्व में किया गया था, लेकिन वह ब्रितानी साम्राज्य से भारतीय जनता को मुक्त करने का पहला बड़ा संघर्ष था। देश में घर-घर में विद्रोही नायकों की चर्चा होने लगी। सिपाहियों की सीमाओं और कमजोरियों के बावजूद, देश को विदेशी शासन से मुक्त कराने का उनका प्रयास एक देशभक्तिपूर्ण कार्य और एक प्रगतिशील कदम था।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

संदर्भ : यहाँ पर

 

सोमवार, 17 नवंबर 2025

378. 1857 का महाविद्रोह-उद्गम

राष्ट्रीय आन्दोलन

378. 1857 का महाविद्रोह-उद्गम


उद्गम

1857 के महाविद्रोह का उद्गम मेरठ में हुआ, जो 10 मई 1857 को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के सिपाहियों के विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था। भारत में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना, टुकड़ों में विजय और सुदृढ़ीकरण तथा अर्थव्यवस्था और समाज के उपनिवेशीकरण की एक लंबी प्रक्रिया थी। इस प्रक्रिया ने हर स्तर पर असंतोष, आक्रोश और प्रतिरोध को जन्म दिया।     परम्परागत ढंग से ब्रिटिश शासन का विरोध करने की परिणति 1857 के विद्रोह में हुई जिसमें किसानों, कारीगरों, और सैनिकों ने लाखों की संख्या में भाग लिया। 1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन की जड़ें हिलाने के लिए काफी था।

यह महाविद्रोह जनता की विदेशी शासन के विरुद्ध वर्षों से जमी हुई शिकायतों का परिणाम था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 100 वर्षों तक भारत पर शासन किया (1757-1857)। उसकी राजनीतिक गतिविधियों, आर्थिक शोषण, प्रशासकीय और अन्य नीतियों से भारतीयों में असंतोष की भावना पनप रही थी। सरकार के विरुद्ध यदा-कदा विद्रोह होते रहते थे। लेकिन संगठित और व्यापक तौर पर कंपनी सरकार के विरुद्ध पहला विद्रोह 1857 में हुआ। हालाकि यह विद्रोह असफल रहा, अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पाया, लेकिन यह महत्वहीन नहीं था। इसने भारत में कंपनी राज समाप्त कर ‘अंग्रेजी राज की स्थापना कर दी।

विद्रोह के कारण

अगर हम विद्रोह के राजनीतिक कारणों पर नज़र दौडाएं तो हम पाते हैं कि कंपनी राज की स्थापना जिस तरीके से हुई थी उससे भारतीयों के एक वर्ग में व्यापक असंतोष व्याप्त था। कम्पनी ने अपने राज की स्थापना न सिर्फ सैनिक शक्ति बल से की थी, बल्कि छल-प्रपंच, राजनीतिक षडयंत्रों का भी सहारा लिया था। क्लाईव से लेकर डलहौजी तक सभी ने इस नीति का सहारा लिया। भारतीय शासकों को अपमानित किया। उनके अधिकारों का हनन किया। उन्हें राज्य से बे-दखल कर दिया था। वेलेस्ली ने अपनी सहायक संधि द्वारा देशी राजाओं की स्वतंत्रता छीन कर उन्हें अपना गुलाम बना लिया।

डलहौजी की नीतियाँ बहुत ही अन्यायकारी थीं। उसने ज़बरदस्ती बहाना बनाकर अनेक राज्यों को कंपनी राज्य में मिला लिया था। उसने देशी संतानहीन शासकों को गोद लेने के अधिकारों से वंचित कर दिया था और उनके राज्यों को अंग्रेजी साम्राज्य में मिला लिया गया। भूतपूर्व शासकों की पेंशनें बंद कर दी थी। उनके राज्यों पर अधिकार कर लिया था। अवध को जिस तरह कंपनी ने अपने अधिकार में लिया था, उससे अन्य राज्यों में भय और असंतोष की भावना घर कर गयी। नाना साहब की पेंशन बंद कर दी गई। मुग़ल वंश को समाप्त करने की घोषणा की गई। मुग़ल सम्राट बहादुर शाह को जिस प्रकार अंग्रेजों द्वारा लाल किला छोड़ने के लिए कहा गया उससे भारतीयों में क्रोध और उद्वेलन की भावना भर गई।

देशी राज्यों के अधिग्रहण का भी बहुत ही व्यापक प्रभाव पडा। ख़ास कर 1856 में अवध के अधिग्रहण से बड़ी संख्या में सैनिकों, ताल्लुकेदारों, ज़मींदारों, प्रशासनिक अधिकारियों में घबराहट और बेचैनी फैल गई। उनके सामने बेकारी की समस्या उठ खड़ी हुई। वे अपनी सुरक्षा के लिए अंग्रेजों से संघर्ष करने को तैयार हो गए। दूसरे क्षेत्रों को अपने राज्य में मिला लेने की ब्रिटिश नीति को वायसराय लॉर्ड डलहौजी ने अनुसरण किया और उसकी वजह से भी देशी रियासतों के बहुत से राजाओं के मन में भय समा गया। विलयन की नीति का ही यह सीधा परिणाम था कि नाना साहब, झांसी की रानी, और बहादुर शाह ब्रिटिश शासन के कट्टर शत्रु हो गए।

कंपनी की दोषपूर्ण प्रशासनिक नीति से भी भारतीयों में भयंकर असंतोष की भावना व्याप्त थी। कंपनी प्रशासन का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी हितों की सुरक्षा करना था। विभिन्न गवर्नर जनरलों के द्वारा लाए गए सुधार कार्य क्रमों को हम गौर से देखें तो पाते हैं कि इनका मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी हितों की सुरक्षा करना था। इन सुधार कार्यक्रमों से भारतीयों का कष्ट बढ़ा। न्याय और लगान व्यवस्था के लिए किए सुधार से भारतीयों को कोई लाभ नहीं हुआ। उनके कष्ट बढे ही। बिचौलियों को लाभ ज़रूर हुआ। जनसाधारण को तो कष्ट ही उठाना पडा। प्रशासन में भ्रष्टाचार फैला हुआ था। कंपनी के कर्मचारी और सामंत दोनों ही प्रजा पर अत्याचार करते थे। सरकार इसे बढ़ावा देती थी।

सरकारी नौकरियों के आवंटन में भेदभावपूर्ण नीति अपनाई जाती थी। भारतीयों को प्रशासन और सेना में उच्च पदों से अलग रखा जाता था। उन्हें सामान वेतन और सुविधाएं नहीं दी जाती थी। उनकी स्वामीभक्ति को संदेह की दृष्टि से देखा जाता था। इससे आक्रोश और असंतोष उत्पन्न हुआ।

बेकारी की समस्या विकराल थी। देशी राज्यों में अनेक उच्चकुलीन प्रतिष्ठित व्यक्ति, कलाकार, धर्माधिकारी नौकरी करते थे। इन्हें राज्य की ओर से संरक्षण और प्रोत्साहन मिलता था। देशी राज्यों के कंपनी राज्य में विलय हो जाने इनके सामने बेकारी की समस्या खडी हो गई। पंडितों और मौलवियों की आमदनी ख़त्म हो गई क्योंकि उनके संरक्षक भारतीय राजाओं, राजकुमारों और ज़मींदारों के अधिकार ख़त्म हो गए। कंपनी के दरवाज़े इनके लिए बंद थे। अतः असंतुष्ट व्यक्तियों, मौलवियों और पंडितों ने जनमानस को भड़काना शुरू कर दिया।

अगर हम आर्थिक कारणों पर नज़र दौडाएं तो पाते हैं कि कंपनी के शासन का सबसे बुरा प्रभाव आर्थिक जीवन पर पडा। देशी उद्योगों का विनाश हुआ। सरकार की आर्थिक नीतियों के कारण भारत के कुटीर उद्योग समाप्त हो गए। वस्त्र उद्योग तो बिलकुल ही समाप्त हो गया।

अंग्रेजों द्वारा भारत से धन बाहर ले जाया गया। भारतीय व्यापार-वाणिज्य पर अधिकार कर यहाँ से अँग्रेज़ धन बटोरकर अपने देश ले जाने लगे। कच्चा माल इंग्लैण्ड के उद्योगों में खप जाता था। भारत के साधनों का हर तरह से शोषण होने लगा। इससे भारत की गरीबी बढ़ गई।

कृषि और किसानों की बुरी दशा बताती है कि सबसे बुरा प्रभाव कृषि पर पडा। किसान सरकार की भू-राजस्व नीति से असंतुष्ट थे। भू-राजस्व प्रणाली के परिणामस्वरूप किसान और खेती पर दबाव बढ़ गया। लगान की राशि बढती गई। किसानों को सरकार के अलावे भू-स्वामियों, ज़मींदारों के अत्याचारों का भी सामना करना पड़ता था। लगान न चुकाने से उनकी ज़मीन छीन ली जाती थी। वे किसान से खेतिहर मज़दूर बनने को विवश हो जाते थे। स्वयं पुराने ज़मींदारों को भी इस व्यवस्था का दुष्परिणाम भुगतना पडा। जागीरदारों की जागीरें छीन ली गई।

नए जमींदार वर्ग द्वारा किसानों का शोषण उनकी स्थिति को बद से बदतर बनाती थी। पुराने जमींदार समाप्त हो गए। उनकी जगह साहूकारों, कंपनी के कर्मचारियों और मध्यवर्ग ने ले लिया। इससे किसानों और पुराने भूमिपतियों में असंतोष बढ़ा। अनेक कृषक विद्रोह हुए।

कर-मुक्त भूमि और जागीरों को ज़ब्त कर लेने से भी असंतोष बढ़ा। जागीरदारों की जागीरें छीन ली गईं। उपहार भूमि पर भी कर लगा दिया गया। इससे लोग क्रोध से भरे बैठे थे।

1857 के महाविद्रोह के पीछे सामाजिक कारणों का भी बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। बहुत से ऐसे सामाजिक प्रश्न थे जिनको लेकर कट्टरपंथी हिन्दू अंग्रेजों के शत्रु बन गए थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि अँग्रेज़ उनकी धार्मिक और सामाजिक मान्यताओं पर प्रहार कर रहे थे। अंग्रेजों द्वारा भारतीयों से तिरस्कारपूर्ण व्यवहार किया जाता रहा। इससे लोगों में असंतोष बढ़ा। भारतीयों को अपमानित और दण्डित करने में अँग्रेज़ आत्मसंतुष्टि का आनंद पाते थे। कानून के समक्ष भी भारतीयों को समानता का दर्ज़ा हासिल नहीं था। अपने जातीय अहंकार के कारण वे लोग समझते थे कि उनके क्लबों में काले लोग नहीं जा सकते। वे भारतीयों को निम्न कोटि का समझते थे।

समय के साथ अंग्रेजों के प्रति अविश्वास की भावना बढती गई। इसका प्रमुख कारण था सुधार के नाम पर भारतीय परम्पराओं, भाषा, संस्कृति को योजनाबद्ध तरीके से समाप्त करने की नीति अंग्रेजों ने अपना ली थी।

अंग्रेजों ने भारत की धार्मिक और सामाजिक परम्पराओं पर आघात किया। ईसाई मिशनरियों के प्रचार कार्य से, धर्म परिवर्तित लोगों को सरकारी नौकरी देने, पैतृक संपत्ति में अधिकार देने की कार्यवाही ने जलती आग में घी डालने की काम किया। मुल्ला, मौलवी, साधु, संन्यासी अपने धर्म पर आघात रोकने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध प्रचार करने लगे। भारतीयों में अंग्रेजी नीतियों के विरुद्ध अविश्वास और क्रोध की भावना पनपी।

लोगों में अंग्रेजों की अजेयता में विश्वास समाप्त होना भी एक प्रमुख कारण था। 1857 के पहले कुछ युद्धों जैसे अफगान युद्ध, या क्रीमिया युद्ध, में अंग्रेजों की हार, उनके शक्ति के केंद्र बंगाल और अन्य जगहों में हुए अनेक विद्रोहों ने भारतीयों में यह धारणा बैठा दी कि अंग्रेज अजेय नहीं हैं, बल्कि साहस और शक्ति से पराजित कर उनका राज्य समाप्त किया जा सकता है। इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का वातावरण बनने लगा।

1857 के महाविद्रोह के पीछे कई सैनिक कारण भी थे। सेना में असंतोष व्याप्त था। भारतीय सैनिकों को इस बात का गर्व था कि अंग्रेजों की कई युद्धों में जीत उन्हीं के कारण हुई थी। इसके बदले में वे पदोन्नति और अच्छे वेतन की अपेक्षा रखते थे। अंग्रेजों से उन्हें ऐसा कुछ नहीं मिला। इससे उनकी भावना को ठेस पहुंची। सैनिकों से भेदपूर्ण व्यवहार किया जाता था। सेना में हालाकि भारतीयों की संख्या बहुत अधिक थी। लेकिन उन्हें ज़्यादातर रंगरूट के रूप में नियुक्त किया जाता था। उन्हें ऊंचे पद नहीं दिए जाते थे। उन्हें अंग्रेजों की अपेक्षा कम वेतन और सुविधाएं दी जाती थीं। कोई भी भारतीय सैनिक साठ-सत्तर रुपये मासिक के सूबेदार के पद से ऊपर नहीं पहुँच सकता था। उसे हर कदम पर अधीनस्थ महसूस कराया जाता था और नस्लीय आधार पर, पदोन्नति और विशेषाधिकारों के मामलों में उसके साथ भेदभाव किया जाता था। उस समय के एक पर्यवेक्षक ने लिखा था, सिपाही को एक बदतर जीव समझा जाता था। सूअर कहा जाता था। कनिष्ठ लोग भी उसके साथ जानवरों जैसा सलूक करते थे।

सेना के सामने बेकारी की समस्या विकराल थी। 1857 के पहले भी भारतीय सैनिकों ने इस असंतोष को अनेक बार व्यक्त किया था। हरबार उनके असंतोष को दमन की नीति अपनाकर दबा दिया गया था। कई बार तो असंतुष्ट सेना की टुकड़ी ही भंग कर दी जाती थी। इससे सैनिकों के सामने बेकारी की समस्या उठ खडी होती थी। देशी राज्यों में भारतीय सैनिकों की छटनी की नीति से भी सैनिकों में बेकारी बढ़ी। 1856 में अवध में विलीनीकरण के कारण 60,000 सैनिकों को नौकरी से हटा दिया गया।

बंगाल के सेना में असन्तोष उभर चुका था। अवध का राज्य समाप्त किए जाने से बंगाल सेना में गुस्से की लहर दौड़ गई। इस सेना में अवध क्षेत्र के सैनिक बड़ी संख्या में थे। अपने नवाब के अपमान से वे तिलमिला उठे।

सैनिकों को समुद्र पार भेजने की नीति ने उन्हें भड़काया। जब लॉर्ड कैनिंग ने ‘जेनरल सर्विस इनलिस्टमेंट ऐक्ट के द्वारा सैनिकों को युद्ध के लिए ज़रुरत पड़ने पर समुद्र पार भेजने की योजना बनाई तो उनमें और अधिक क्रोध पनपा। वे इसे अंग्रेजों की धर्म-परिवर्तन करने की चाल समझते थे। भारतीय समुद्र पार करना धर्म-विरोधी कार्य समझते थे। इससे ब्राह्मण सैनिक भड़क उठे। 1824 में बैरकपुर स्थित 47वीं रेजिमेंट को बर्मा जाने का आदेश मिला। सिपाहियों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। रेजिमेंट को भंग कर दिया गया और विरोध का नेतृत्व करने वालों को फाँसी दे दी गई। सीताराम, जो अफ़ग़ानिस्तान गए थे, न केवल अपने गाँव में, बल्कि अपनी बैरक में भी बहिष्कृत कर दिए गए।

सैनिकों के वेतन में कटौती भी एक प्रमुख कारण था। सिंध या पंजाब में काम करने वाले सैनिकों को विदेशी सेवा भत्ता नहीं देकर उनके वेतन में कटौती की गई थी। इससे सैनिकों में क्रोध व्याप्त था। पैदल सेना में एक सिपाही को सात रुपये मासिक मिलते थे। घुड़सवार सेना में एक सवार को 27 रुपये मिलते थे, जिसमें से उसे अपनी वर्दी, भोजन और अपने घोड़े के रखरखाव का खर्च उठाना पड़ता था, और अंततः उसके पास केवल एक या दो रुपये ही बचते थे।

सैनिकों पर कई तरह के प्रतिबन्ध लगा दिए गए थे, जिससे उनमें असंतोष था। सैनिकों के बीच ईसाई धर्म का प्रचार किया जाता था। ईसाई धर्म में धर्मांतरण को बढ़ावा देने की सरकार की गुप्त योजनाओं की अफवाहों ने सिपाहियों को और भी ज़्यादा परेशान कर दिया। सैनिकों को चन्दन या टीका लगाने, दाढी और पगड़ी रखने से रोका जाता था। इसलिए सेना में यह भावना फैल रही थी कि अँग्रेज़ उनके धर्म को नष्ट करने पर तुले हुए हैं। सेना प्रशासन ने इन आशंकाओं को दूर करने के लिए कुछ नहीं किया और सिपाहियों को लगा कि उनका धर्म वाकई खतरे में है।

इस महाविद्रोह के फूट पड़ने का तात्कालिक कारण चर्बी लगे कारतूस का व्यवहार था, जिसने अन्दर ही अन्दर सुलग रही चिंगारी को भड़काने का अवसर दिया। जनवरी, 1857 में सेना में एनफील्ड राइफल का व्यवहार शुरू हुआ। इसका कारतूस दांत से काटना पड़ता था। बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गयी कि इसमें गाय और सूअर की चर्बी मिली हुई है। इससे हिन्दू और मुसलमान दोनों में क्रोध भड़क उठा। 26 फरवरी, 1857 को बहरामपुर में 19वीं नेटिव इन्फैंट्री ने इस कारतूस का प्रयोग करने से इनकार कर दिया। यह बगावत की सूचना थी। बैरकपुर में 34वीं इन्फैंट्री के सिपाही मंगल पांडे ने 29 मार्च 1857 को दो अँग्रेज़ सैनिक पदाधिकारियों की ह्त्या कर 1857 का महाविद्रोह शुरू कर दिया। निर्णायक विद्रोह 11 मई, 1857 को मेरठ में शुरू हुआ।

उपसंहार

11 मई 1857 को विदेशी शासन को खत्म करने के एक असफल लेकिन वीरतापूर्ण प्रयास का विद्रोह शुरू हो गया था। दिल्ली पर कब्ज़ा और बहादुर शाह को हिंदुस्तान का सम्राट घोषित करने ने विद्रोह को एक सकारात्मक राजनीतिक अर्थ दिया और शाही शहर के अतीत के गौरव को याद दिलाकर विद्रोहियों के लिए एक एकजुटता का आधार प्रदान किया।

सिपाहियों ने विद्रोह क्यों किया? कंपनी की सेवा में होना प्रतिष्ठा की बात मानी जाती थी; इससे आर्थिक स्थिरता मिलती थी। फिर, सिपाहियों ने अनिश्चित भविष्य के लिए इन लाभों को क्यों त्याग दिया? दिल्ली में जारी एक घोषणा तत्काल कारण बताती है: 'यह सर्वविदित है कि इन दिनों सभी अंग्रेज़ इन नापाक मंसूबों में लगे हैं - पहले, पूरी हिंदुस्तानी सेना के धर्म को नष्ट करना, और फिर लोगों को जबरन ईसाई बनाना। इसलिए, हमने, केवल अपने धर्म के कारण, लोगों के साथ मिलकर काम किया है और एक भी काफिर को ज़िंदा नहीं छोड़ा है, और इन शर्तों पर दिल्ली राजवंश को फिर से स्थापित किया है।'

यह निश्चित रूप से सच है कि कंपनी की सेना और छावनियों में सेवा की शर्तें सिपाहियों, जो मुख्यतः उत्तर पश्चिमी प्रांतों और अवध के उच्च जाति के हिंदुओं से आए थे, की धार्मिक मान्यताओं और पूर्वाग्रहों के साथ तेजी से टकराव में आ गईं। शुरुआत में, प्रशासन ने सिपाहियों की मांगों को पूरा करने की कोशिश की। उन्हें उनकी जाति और धर्म के अनुसार रहने की सुविधाएं प्रदान की गईं। लेकिन, सेना के संचालन का न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों में, बल्कि बाहरी देशों में भी विस्तार होने के कारण, ऐसा करना अब संभव नहीं था। एक रेजिमेंट के भीतर जातिगत भेद और अलगाव एक लड़ाकू इकाई की एकजुटता के लिए अनुकूल नहीं थे। सिपाहियों का यह विद्रोह अपने आप में अंग्रेजों के विरुद्ध एक विद्रोह था और इस प्रकार, एक राजनीतिक कार्य था। विद्रोह को यह चरित्र सिपाही की आम जनता के साथ हितों की एकरूपता ने प्रदान किया।

1857 के महाविद्रोह को एक लंबे समय तक बंगाल की सेना के भारतीय सिपाहियों का ग़दर मात्र समझा जाता रहा। लेकिन जब हम उसके कारणों की खोज की गहराइयों में जाते हैं तो पाते हैं कि यह केवल सेना के असंतोष के रूप में नहीं फूटा था, बल्कि यह वह मूलभूत सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की लंबी प्रक्रिया थी जिसने कृषक समुदाय को परेशान कर दिया था। इस व्यापक जन-उभार का कारण ब्रिटिश शासन की प्रकृति में तलाशना होगा, जिसने समाज के लगभग सभी वर्गों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। अत्यधिक करों के बोझ तले किसान क्रमशः ऋणी और दरिद्र होते गए। कंपनी का एकमात्र हित न्यूनतम प्रयास से अधिकतम राजस्व प्राप्त करना था। परिणामस्वरूप, अक्सर भूमि के संसाधनों की परवाह किए बिना, जल्दबाजी में बंदोबस्त किए गए। अधिकारियों ने यह नहीं सोचा था कि इतनी तीव्र और अचानक वृद्धि का किसानों पर विनाशकारी परिणाम होगा। परिस्थितियाँ चाहे जो भी हों, सरकार राजस्व वसूलने के लिए उत्सुक थी। बहुत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी, छूट शायद ही कभी दी जाती थी।

पारंपरिक ज़मींदार अभिजात वर्ग को भी कम नुकसान नहीं हुआ। अवध में, जो विद्रोह का केंद्र था, तालुकदारों ने अपनी सारी शक्ति और विशेषाधिकार खो दिए। लगभग 21,000 तालुकदार जिनकी संपत्तियाँ ज़ब्त कर ली गईं, अचानक खुद को आय के स्रोत से वंचित पाया। इन बेदखल तालुकदारों ने, अपने ऊपर हुए अपमान से त्रस्त होकर, सिपाही विद्रोह से मिले अवसर का लाभ उठाकर अंग्रेजों का विरोध किया और जो कुछ उन्होंने खोया था उसे वापस पा लिया।

ब्रिटिश शासन का मतलब कारीगरों और हस्तशिल्पियों के लिए भी दुख था। कंपनी द्वारा भारतीय राज्यों के विलय ने उनके संरक्षण के प्रमुख स्रोत को समाप्त कर दिया। इसके अलावा, ब्रिटिश नीति ने भारतीय हस्तशिल्प को हतोत्साहित किया और ब्रिटिश वस्तुओं को बढ़ावा दिया। अत्यधिक कुशल भारतीय कारीगर अपनी आय के स्रोत से वंचित हो गए और उन्हें रोज़गार के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों की तलाश करने के लिए मजबूर होना पड़ा जो शायद ही मौजूद थे, क्योंकि भारतीय हस्तशिल्प के विनाश के साथ-साथ आधुनिक उद्योगों का विकास नहीं हुआ।

ब्रिटिश अधिकारियों के सुधारवादी उत्साह ने काफी संदेह, आक्रोश और विरोध पैदा किया था। रूढ़िवादी हिंदुओं और मुसलमानों को डर था कि सामाजिक कानून के माध्यम से अंग्रेज उनके धर्म और संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए, रूढ़िवादी और धार्मिक लोग अंग्रेजों के खिलाफ एकजुट हो गए।

सिपाहियों और आम जनता के विद्रोह के गठबंधन ने 1857 के आंदोलन को एक अभूतपूर्व जन-उभार बना दिया। यह निश्चित रूप से कहना मुश्किल है कि यह एक संगठित और सुनियोजित विद्रोह था या एक स्वतःस्फूर्त विद्रोह। अंत में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि 1857 का विद्रोह यह कोई अचानक घटित घटना नहीं थी। यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक सदी से चली आ रही प्रचंड जन-प्रतिरोध की परंपरा का चरमोत्कर्ष था। 1857 को पुराने प्रकार के ब्रिटिश विरोधी प्रतिरोध की परिणति माना जा सकता है, जिसका नेतृत्व बेदखल सरदारों ने किया था और जिसका उद्देश्य 'पुनर्स्थापना' था।

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मनोज कुमार

पिछली कड़ियां-  राष्ट्रीय आन्दोलन

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